गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरः
गुरुः साक्षात्परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः.
ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी
भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च।
गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः
सर्वे ग्रहा शांति करा भवंतु ॥१॥
गजाननं भूतगणादि सेवितं
कपित्थजम्बूफलसार भक्षितम् ।
उमासुतं शोकविनाशकारणं
नमामि विघ्नेश्वर पादपङ्कजम्
गुरू ब्रह्मा गुरू विष्णु, गुरु देवो महेश्वरा गुरु साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः
प्रथम गुरु को वंदना दूजे आदि गणेश तीजे माता शारदे कंठ करो प्रवेश
सदा भवानी दाहिनी गौरी पुत्र गणेश पांच देव रक्षा, करे, ब्रह्मा विष्णु महेश
कर्ता करे न कर सकै गुरु करै सो होय तीन लोक नौ खंड में गुरु से बड़ा न कोय गुरु
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाय
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो मिलाय
यह तन विष की पोटली
गुरु अमृत की खान
सीस दिए गुरु मिले तो भी सस्ता जान
गुरु समान दाता नहीं, याचक सीष समान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरुवार दे लुटाई
राम नाम की लूट है जो चाहे तो लूट अंत काल पछतायेगा जब प्राण जाएंगे छूट
ओम गुरुवे नमः ओम नमः ओम नमः
om bhariva Namha
om panch peern nath namha
‘ध्यानमूलं गुरुर्मूर्ति, पूजामूलं गुरु पदम्। मन्त्र मूलं गुरोर्वाक्यं मोक्ष मूलं गुरुकृपा।’ अर्थात गुरु की मूर्ति ही ध्यान का मूल है। गुरु के चरणों की वंदना ही पूजा का मूल है। गुरु के वाक्य ही मंत्र हैं और गुरु की कृपा ही मोक्ष का आधार है। संसार में गुरु से बड़ा कुछ भी नहीं है।
गुरु के ध्यान मात्र से ही त्रिदेवों की वंदना हो जाती है। संसार में तीन ही गुरु हैं। माता, पिता और गुरु। इन तीनों के बिना जीवन व्यर्थ है। अनुपयोगी है।
माता को शिशु का प्रथम गुरु कहा गया है। पिता और माता द्वारा प्रदत्त ज्ञान बच्चे को संसार की ओर ले जाता है लेकिन गुरु अपने शिष्य को संसार में रहते हुए उससे निर्लिप्त रहने का ज्ञान देता है। उसे भवसागर के पार ले जाता है। इसलिए गुरु का स्थान माता-पिता से भी अधिक ऊंचा है।
कबीरदास ने तो गुरु को ईश्वर से भी श्रेष्ठ बताया है। ‘गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूं पांय। बलिहारी गुरु आपनो गोविंद दियो बताय।’ जो ईश्वर से जान-पहचान कराए। श्रेष्ठता के करीब ले जाए। आदर्शों और सिद्धांतों को प्रगाढ़ करे वही तो गुरु है। भगवान शिव ने उपासनारत काकभुशुंडि जो पूर्व जन्म में ब्राह्मण थे, उन्हें कौआ होने का शाप इसलिए दे दिया था क्योंकि उन्होंने मंदिर में पहुंचे अपने गुरु को प्रणाम नहीं किया था। ‘सठ स्वपच्छ तव हृदय बिसाला। सपदि होहु पक्षी चंडाला।’ यही नहीं, अपनी प्राणप्रिया पार्वती पर प्रहार करने वाले तारकासुर के बेटों को भी उन्होंने उनके गुरु शुक्राचार्य की प्रार्थना पर यह कहते हुए प्राणदान दे दिया कि यद्यपि तुम्हारे कर्म क्षमा योग्य नहीं हैं, फिर भी तुम्हारे गुरु की प्रार्थना पर मैं तुम्हें छोड़ रहा हूं। गुरु अपने शिष्य को चौरासी लाख योनियों से पार कराने का सामर्थ्य रखता है। वह उसे अपने परामर्श से भवसागर के पार ले जाता है। कहते हैं कि गुरु अपने शिष्य को नया जीवन देता है लेकिन ऐसा नहीं है। गुरु अपने शिष्य को गढ़ता है। कुम्हार की तरह। भीतर से चिकना बनाता है और बाहर से खुरदरा। कबीर कहते हैं कि ‘गुरु कुम्हार शिष कुंभ है गढ़-गढ़ काढैं खोट, अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट।’
कबीर दास जी ने तो अपने गुरु को बनिया तक कह डाला। ऐसा बनिया जो बिना डांडी और पलड़े के ही सारे संसार को तौलता है। ‘गुरु हमारा बानिया करे यही व्यापार। बिन डांडी बिनु पालड़ा जोखै सब संसार।’ गुरु अपने अनुभव की तुला पर तौलता है। उसे संसार को परखने की क्षमता होती है। गुरु अपने शिष्यों की परीक्षा लेते ही रहते हैं लेकिन हर गुरु चाहता है कि उसका शिष्य उसकी परीक्षा में पास हो जाए। शिष्य के प्रति जितनी ममता मां को होती है, उतना ही प्यार गुरु को होता है। जो अपने गुरु को सम्मान नहीं देते, ऐसे शिष्य तमाम सांसारिक कष्ट भोगते, समस्याओं के मकड़जाल में उलझते और दुखी होते हैं। गुरु का प्रोत्साहन और परामर्श ही शिष्य को आगे बढ़ाता है। जिस तरह पानी में रहते हुए भी कमल पानी के प्रभावों से अछूता होता है, उसी तरह गुरु के मार्गदर्शन में चलने वाले शिष्य को संसार के राग-द्वेष स्पर्ष तक नहीं कर पाते।
गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समतुल्य कहा गया है। शिव तो जगद्गुरु हैं। शिव गुरुओं के भी गुरु हैं। ‘जगद्गुरो नमस्तुभ्यं शिवाय शिवदाय च। योगीन्द्राणां योगीन्द्र गुरुणां गुरवे नम:।’ शिव का अर्थ ही है कल्याण। गुरु पूर्णिमा आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन आती है। वर्षा ऋतु का आगमन और आषाढ़ मास का आगाज लगभग एक साथ होता है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही चारों वेदों, 18 पुराणों, उपनिषदों और महाभारत का प्रणयन करने वाले कृष्ण द्वैपायन महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था। इसलिए इसका दूसरा नाम व्यास पूर्णिमा भी है। इस दिन भक्ति भाव के साथ महर्षि वेदव्यास की पूजा की जाती है। बंगाल के साधु इस दिन सिर मुंडाकर परिक्रमा पर जाते हैं। ब्रज क्षेत्र में इस पर्व को मुड़िया पूनो के नाम से मनाते हैं और गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करते हैं। कोई इस दिन ब्रह्मा की पूजा करता है तो कोई अपने दीक्षा गुरु की। इस दिन लोग गुरु को साक्षात भगवान मानकर पूजन करते हैं। इस दिन को मंदिरों, आश्रमों और गुरु की समाधियों पर धूमधाम से मनाया जाता है। भारत की दसों दिशाएं गुरुमय हो जाती हैं। पूर्व से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक शिष्य अपने गुरुओं का आशीर्वाद लेने उनके धाम जाते हैं। यह तिथि गुरु-शिष्य के प्रति अटूट आस्था और विश्वास की तिथि है।
आषाढ़ की पूर्णिमा को यह पर्व मनाने का उद्देश्य है कि जब तेज बारिश के समय काले बादल छा जाते हैं और अंधेरा हो जाता है, तब गुरु उस चंद्र के समान है, जो काले बादलों के बीच से धरती को प्रकाशमान करते हैं। ‘गुरु’ शब्द का अर्थ ही होता है कि अंधेरे को खत्म करना। गुरु शिष्य का विश्वास होता है और शिष्य अपने गुरु की परंपरा का संवाहक प्रकाश। भारत की महान गुरु परंपरा का दुनिया भर में आदर के साथ नाम लिया जाता है। यहां गुरु की निंदा नहीं सुनने की परंपरा है। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि ‘हरिहर निंदा सुनहिं जे काना। होंहि पाप गौ घात समाना।’ इस देश के संतों और गुरुओं ने दुनिया भर का मार्गदर्शन किया है। उन्होंने अपने शिष्यों को धर्म के प्रति इतना दृढ़ बनाया कि उन्होंने धर्म के लिए अपने को बेच दिया। पत्नी और बच्चे को बेच दिया लेकिन अपने वचन से नहीं मुकरे। तभी तो कहा जाता है कि ‘चंद्र टरै सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार। पै दृढ़ हरिश्चंद्र कै टरै न सत्य विचार।’ यह वशिष्ठ की गुरुता का ही चमत्कार था कि हरिश्चंद्र को अपनी परीक्षा में विश्वामित्र डिगा नहीं पाए।
सवाल यह उठता है कि गुरु किसे बनाया जाए। इसके लिए नाथ योगी कहते हैं कि पूरे गुरु का ही चेला बनना चाहिए। अन्य संतों के बीच यह बात सर्वमान्य ढंग से कही जाती है कि ‘जब तक गुरुहिं मिलहिं नहिं सांचा। तब तक गुरुहिं करहिं दस पांचा।’ गुरु दत्तात्रेय ने 24 गुरु बनाए थे। इनमें सभी प्रकृति से थे। उनका मनुष्य गुरु एक भी नहीं था। शिष्य जिससे भी श्रेष्ठ मार्गदर्शन प्राप्त कर सके, उसे ही उसे अपना गुरु बनाना चाहिए। जिस तरह शिष्यों को श्रेष्ठ गुरुओं की तलाश होती है, उसी तरह श्रेष्ठ गुरु भी श्रेष्ठ शिष्य की तलाश करते हैं। गुरु-शिष्य परंपरा का आधार चरित्र निर्माण है। गुरु पूर्णिमा को गुरु से मिलने वाला आशीर्वाद अक्षय होता है लेकिन यह शिष्य की पात्रता पर निर्भर करता है कि वह कितना आशीर्वाद ग्रहण कर पाता है। गुरु के सम्मान की निरंतरता बनाए रखने में ही जीव जगत का कल्याण है। इस बात को जितनी जल्दी समझ लिया जाए, उतना ही अच्छा है।
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"मंत्र-मूलं गुरार्वाक्यं, पूजा-मूलं गुरु-पदम् । ध्यान मूलं गुरुमूर्ति मोक्ष मूलं गुरुकृपा ।। इस दृष्टि से श्रीगुरु ही शक्ति-साधना के प्रथम और अंतिम स्वरूप हैं। गुरु का कार्य क्या है? गुरु शिष्य को मंत्र की दीक्षा देता है। उस मंत्र की साधना से शिष्य की उन्नति होती है। श्रीगुरु साधना की पद्धति भी बताते हैं। गुरु का शरीर ध्यान का मूल है। वही अनंत ऊर्जा और सारे आध्यात्म का सार है। ऋषि-मनीषी भी कहते हैं कि उस ध्यान का मूल है – गुरु का शरीर। गुरु के शरीर का ध्यान किए बिना कोई भी आध्यात्म की साधना पूरी नहीं होती है। मैं बताना चाहता हूँ कि आज तक मैंने तपस्या या साधना नहीं की है। यह केवल गुरु के प्रसाद का प्रतिफल है कि उनके स्मरण करने मात्र से ही मैं परम आनंद ध्यान में डूबने लगता हूँ। गुरु का स्मरण बुद्धि से समझ में नहीं आएगा। हृदय खोल कर गुरु की निगाहों में झाँको, तब बात समझ में आ सकती है, कुछ परिवर्तन हो सकता है। तब आपका रोआं-रोआं काँपने लग सकता है। तब आपको लगेगा कि बुद्धि के परे भी कोई अनुभव हो सकता है, जहाँ तर्क शक्ति समाप्त हो जाती है और शक्ति क्षीण हो जाती है। “पूजा मूलं गुरोः पदम” कोई भी पूजा तब तक सार्थक नहीं होती है जब तक तुम्हारी पूजा में गुरु के चरणों का स्मरण न हो जाए। “मंत्र मूलं गुरोर्वाक्यम”–गुरु का वाक्य मंत्र का मूल है। कितना भी मंत्र जपते रहो, कोई भी मंत्र तुम्हारे लिये फलीभूत नहीं हो सकता है, जब तक कि गुरु के मुंह से निकले वाक्य का तुम स्मरण नहीं करते हो, उनके शब्दों पर ध्यान नहीं देते हो और उनकी वाणी का सम्मान नहीं करते हो। जो गुरु कहता है उस पर नहीं चलोगे तो कोई भी मंत्र सार्थक नहीं हो सकता है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि मंत्र जपना तब तक निरर्थक है, जब तक कि सद्गुरु के वचनों को आज्ञा स्वरूप धारण नहीं करते हो। उसके अनुसार चलते नहीं हो। “मोक्ष मूलं गुरोः कृपा” – कितनी भी तपस्या, कितनी भी साधना, कितना भी प्राणायाम, कितना भी शीर्षाशन करते रहो, लेकिन गुरु की कृपा के बिना आनंद रूपी मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता है। इसीलिए ऋषियों मनीषियों ने कहा है कि – शीर्षाशन करते रहो, लेकिन गुरु की कृपा के बिना आनंद रूपी मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता है। इसीलिए ऋषियों मनीषियों ने कहा है कि – गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरूरदेवो महेश्वर:, गुरुः साक्षात परम्ब्रंह, तस्मै श्री गुरुवे नमः। गुरु ब्रह्मा है जो पैदा करता है। गुरु विष्णु है यानि जो पालन-पोषण करता है, संभालता है। और गुरु ही महेश्वर हैं। शिव का काम है संहार करना। गुरु आपको ठोकता पीटता है, हिलाता डुलाता है। गुरु तो उसी शिव का रूप है। अंदर से तुम्हारे हाथ को पकड़े रहता है, तुम्हारे कलेजे को थामे रहता है। भीतर से तुम्हें संभाले रहता है और बाहर बाहर चोट भी करता है। कभी डांटता है, कभी क्रोध दिखाने का भी अभिनय करता है। तरह तरह के नाटक भी करता है। तुम्हें डराता भी है। क्योंकि संहार करने वाले शिव जैसा रूप भी तो उसे धारण करना है। तुम्हारे दुर्गुणों को, तुम्हारी बुराइयों को जलाना है। इस प्रकार वह शिव रूप है। “गुरुः साक्षात परम्ब्रंह, तस्मै श्री गुरुवे नमः”। वह साक्षात परमब्रम्ह है। गुरु तो ब्रम्हा, विष्णु, महेश से भी परे है। इनसे भी ऊपर है जहां से इनकी उत्पत्ति होती है, इनका उद्भव होता है। इस अनंत ऊर्जा का जिसे तुम साक्षात ब्रम्ह कहते हो, परम्ब्रंह कहते हो, वही सब कुछ है। उसके अलावा कुछ है ही नहीं। “एको ब्रम्ह द्वितीयोनास्ति”। ऋषि कहते हैं कि गुरु ब्रम्हा ही नहीं, वह महेश ही नहीं, वह विष्णु ही नहीं है, वह तो इन सबसे परे साक्षात परम्ब्रंह है। वह गुरु चरण रज का महात्म्य इस लेख का विषय है। कृपया साधक जान इस लेख को अपने अनुभव एवं विद्वता से पूर्ण करे दिव्य गुरु चरणो में कमल अर्पित करे __/\__ कम देखें _____________________________________\ ‘ध्यानमूलं गुरुर्मूर्ति, पूजामूलं गुरु पदम्। मन्त्र मूलं गुरोर्वाक्यं मोक्ष मूलं गुरुकृपा।’ अर्थात गुरु की मूर्ति ही ध्यान का मूल है। गुरु के चरणों की वंदना ही पूजा का मूल है। गुरु के वाक्य ही मंत्र हैं और गुरु की कृपा ही मोक्ष का आधार है। संसार में गुरु से बड़ा कुछ भी नहीं है। साल में 12 पूर्णिमाएं आती हैं लेकिन गुरु पूर्णिमा की तुलना उनमें से एक भी नहीं कर सकतीं। गुरु के ध्यान मात्र से ही त्रिदेवों की वंदना हो जाती है। संसार में तीन ही गुरु हैं। माता, पिता और गुरु। इन तीनों के बिना जीवन व्यर्थ है। अनुपयोगी है। माता को शिशु का प्रथम गुरु कहा गया है। पिता और माता द्वारा प्रदत्त ज्ञान बच्चे को संसार की ओर ले जाता है लेकिन गुरु अपने शिष्य को संसार में रहते हुए उससे निर्लिप्त रहने का ज्ञान देता है। उसे भवसागर के पार ले जाता है। इसलिए गुरु का स्थान माता-पिता से भी अधिक ऊंचा है। कबीरदास ने तो गुरु को ईश्वर से भी श्रेष्ठ बताया है। ‘गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूं पांय। बलिहारी गुरु आपनो गोविंद दियो बताय।’ जो ईश्वर से जान-पहचान कराए। श्रेष्ठता के करीब ले जाए। आदर्शों और सिद्धांतों को प्रगाढ़ करे वही तो गुरु है। भगवान शिव ने उपासनारत काकभुशुंडि जो पूर्व जन्म में ब्राह्मण थे, उन्हें कौआ होने का शाप इसलिए दे दिया था क्योंकि उन्होंने मंदिर में पहुंचे अपने गुरु को प्रणाम नहीं किया था। ‘सठ स्वपच्छ तव हृदय बिसाला। सपदि होहु पक्षी चंडाला।’ यही नहीं, अपनी प्राणप्रिया पार्वती पर प्रहार करने वाले तारकासुर के बेटों को भी उन्होंने उनके गुरु शुक्राचार्य की प्रार्थना पर यह कहते हुए प्राणदान दे दिया कि यद्यपि तुम्हारे कर्म क्षमा योग्य नहीं हैं, फिर भी तुम्हारे गुरु की प्रार्थना पर मैं तुम्हें छोड़ रहा हूं। गुरु अपने शिष्य को चौरासी लाख योनियों से पार कराने का सामर्थ्य रखता है। वह उसे अपने परामर्श से भवसागर के पार ले जाता है। कहते हैं कि गुरु अपने शिष्य को नया जीवन देता है लेकिन ऐसा नहीं है। गुरु अपने शिष्य को गढ़ता है। कुम्हार की तरह। भीतर से चिकना बनाता है और बाहर से खुरदरा। कबीर कहते हैं कि ‘गुरु कुम्हार शिष कुंभ है गढ़-गढ़ काढैं खोट, अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट।’ कबीर दास जी ने तो अपने गुरु को बनिया तक कह डाला। ऐसा बनिया जो बिना डांडी और पलड़े के ही सारे संसार को तौलता है। ‘गुरु हमारा बानिया करे यही व्यापार। बिन डांडी बिनु पालड़ा जोखै सब संसार।’ गुरु अपने अनुभव की तुला पर तौलता है। उसे संसार को परखने की क्षमता होती है। गुरु अपने शिष्यों की परीक्षा लेते ही रहते हैं लेकिन हर गुरु चाहता है कि उसका शिष्य उसकी परीक्षा में पास हो जाए। शिष्य के प्रति जितनी ममता मां को होती है, उतना ही प्यार गुरु को होता है। जो अपने गुरु को सम्मान नहीं देते, ऐसे शिष्य तमाम सांसारिक कष्ट भोगते, समस्याओं के मकड़जाल में उलझते और दुखी होते हैं। गुरु का प्रोत्साहन और परामर्श ही शिष्य को आगे बढ़ाता है। जिस तरह पानी में रहते हुए भी कमल पानी के प्रभावों से अछूता होता है, उसी तरह गुरु के मार्गदर्शन में चलने वाले शिष्य को संसार के राग-द्वेष स्पर्ष तक नहीं कर पाते। गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समतुल्य कहा गया है। शिव तो जगद्गुरु हैं। शिव गुरुओं के भी गुरु हैं। ‘जगद्गुरो नमस्तुभ्यं शिवाय शिवदाय च। योगीन्द्राणां योगीन्द्र गुरुणां गुरवे नम:।’ शिव का अर्थ ही है कल्याण। गुरु पूर्णिमा आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन आती है। वर्षा ऋतु का आगमन और आषाढ़ मास का आगाज लगभग एक साथ होता है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही चारों वेदों, 18 पुराणों, उपनिषदों और महाभारत का प्रणयन करने वाले कृष्ण द्वैपायन महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था। इसलिए इसका दूसरा नाम व्यास पूर्णिमा भी है। इस दिन भक्ति भाव के साथ महर्षि वेदव्यास की पूजा की जाती है। बंगाल के साधु इस दिन सिर मुंडाकर परिक्रमा पर जाते हैं। ब्रज क्षेत्र में इस पर्व को मुड़िया पूनो के नाम से मनाते हैं और गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करते हैं। कोई इस दिन ब्रह्मा की पूजा करता है तो कोई अपने दीक्षा गुरु की। इस दिन लोग गुरु को साक्षात भगवान मानकर पूजन करते हैं। इस दिन को मंदिरों, आश्रमों और गुरु की समाधियों पर धूमधाम से मनाया जाता है। भारत की दसों दिशाएं गुरुमय हो जाती हैं। पूर्व से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक शिष्य अपने गुरुओं का आशीर्वाद लेने उनके धाम जाते हैं। यह तिथि गुरु-शिष्य के प्रति अटूट आस्था और विश्वास की तिथि है। आषाढ़ की पूर्णिमा को यह पर्व मनाने का उद्देश्य है कि जब तेज बारिश के समय काले बादल छा जाते हैं और अंधेरा हो जाता है, तब गुरु उस चंद्र के समान है, जो काले बादलों के बीच से धरती को प्रकाशमान करते हैं। ‘गुरु’ शब्द का अर्थ ही होता है कि अंधेरे को खत्म करना। गुरु शिष्य का विश्वास होता है और शिष्य अपने गुरु की परंपरा का संवाहक प्रकाश। भारत की महान गुरु परंपरा का दुनिया भर में आदर के साथ नाम लिया जाता है। यहां गुरु की निंदा नहीं सुनने की परंपरा है। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि ‘हरिहर निंदा सुनहिं जे काना। होंहि पाप गौ घात समाना।’ इस देश के संतों और गुरुओं ने दुनिया भर का मार्गदर्शन किया है। उन्होंने अपने शिष्यों को धर्म के प्रति इतना दृढ़ बनाया कि उन्होंने धर्म के लिए अपने को बेच दिया। पत्नी और बच्चे को बेच दिया लेकिन अपने वचन से नहीं मुकरे। तभी तो कहा जाता है कि ‘चंद्र टरै सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार। पै दृढ़ हरिश्चंद्र कै टरै न सत्य विचार।’ यह वशिष्ठ की गुरुता का ही चमत्कार था कि हरिश्चंद्र को अपनी परीक्षा में विश्वामित्र डिगा नहीं पाए। सवाल यह उठता है कि गुरु किसे बनाया जाए। इसके लिए नाथ योगी कहते हैं कि पूरे गुरु का ही चेला बनना चाहिए। अन्य संतों के बीच यह बात सर्वमान्य ढंग से कही जाती है कि ‘जब तक गुरुहिं मिलहिं नहिं सांचा। तब तक गुरुहिं करहिं दस पांचा।’ गुरु दत्तात्रेय ने 24 गुरु बनाए थे। इनमें सभी प्रकृति से थे। उनका मनुष्य गुरु एक भी नहीं था। शिष्य जिससे भी श्रेष्ठ मार्गदर्शन प्राप्त कर सके, उसे ही उसे अपना गुरु बनाना चाहिए। जिस तरह शिष्यों को श्रेष्ठ गुरुओं की तलाश होती है, उसी तरह श्रेष्ठ गुरु भी श्रेष्ठ शिष्य की तलाश करते हैं। गुरु-शिष्य परंपरा का आधार चरित्र निर्माण है। गुरु पूर्णिमा को गुरु से मिलने वाला आशीर्वाद अक्षय होता है लेकिन यह शिष्य की पात्रता पर निर्भर करता है कि वह कितना आशीर्वाद ग्रहण कर पाता है। गुरु के सम्मान की निरंतरता बनाए रखने में ही जीव जगत का कल्याण है। इस बात को जितनी जल्दी समझ लिया जाए, उतना ही अच्छा है।